विशेष लेख – क्या किसान आंदोलन भटक गया है क्या सियासत के बाजीगर अब घुस गए प्रदर्शन में ?

किसानों का आंदोलन किस दिशा में जा रहा है अब किसानो को भी पता नहीं है। जिन लोग अब तक अपनी कमान संभाले थे वो कमान किसके हाथ मे है यह भी अब इनको पता नहीं है। यही कारण है कि राष्ट्रपति से मिलने विपक्ष का प्रतिनिधि मंडल गया जिसमे एक भी बंदा किसान नहीं था । कल मिलाकर जिस बात का डर था वहीं हुआ। मसले का राजनीति करण हो गया। अब तो समाधान दूर की कौड़ी हो गई है। जब बात शुरू होने से पहले ही बिल रद्द करने की बात की जाती हैं तो वार्ता मे शामिल होने की नियत साफ दिखाई देती है। जब पहले तीन माह फिर छह माह फिर साल भर के आंदोलन की रूपरेखा की बात होती है तो साफ दिखता है आंदोलन के आड मे अराजकता फैलाने की साजिश है। कैसे कोई सोच सकता है कि आंदोलन साल भर चलने वाला है। हर आंदोलन को शाहीन बाग बनाने की शायद महारथ हासिल हो गई है। क्या कारण है कि जब देश के राजधानी में आंदोलन करने के लिए जगह निर्धारित है तो आंदोलन वहां न करना भी एक साजिश से लगने लगतीं हैं। क्या कारण है कि आम दस या ग्यारह दिसंबर को पूरे देश में आईएमए हड़ताल पर जा रहे है । पर शायद देश वासियों को यह हड़ताल क्यो हो रहीं हैं यह शायद ही मालूम हो । मै आपको यह बात आसान रूप से बता दू । मोदी जी की सरकार ने एक बिल पास किया है जिसमे आयुर्वेद के उत्थान के लिए बहुत महत्वपूर्ण कदम उठाये गये है। उल्लेखनीय है कि पिछले सत्तर साल से आजादी के बाद से ही आयुर्वेद चिकित्सक उपेक्षित ही थे । पर यह भी कटु सत्य है कि देश के चिकित्सा की रीढ़ भी आयुर्वेद चिकित्सक ही रहे है । चाहे किसी की भी पार्टी की सरकार रही हो सबने इसकी महत्ता समझी है । आज सुदूर इलाको में यही चिकित्सक है जो कम से कम उस इलाको में सुविधाऐं मुहैया कराने का काम करते हैं। स्वास्थय के लिए अंतिम वयक्ति तक कम से कम यही चिकित्सक पहुंचते हैं। इसलिए इंटीग्रेटेड चिकित्सा ( समन्वित चिकित्सा ) पद्धति पूरे देश में लागू कर दिया गया था । पर जब तक इन लोगों को इनके व्यवसाय मे फर्क नहीं पड रहा था तब तक इन्होंने कोई आपत्ति नहीं उठाई फिर धीरे से इंट्रीग्रेटेड कोर्स बंद करवाया। फिर चिकित्सा पद्धति के रोक पर अपनी पूरी ताकत लगवा दी। चिकित्सा राज्य का विषय है इसलिए यही कारण था कि छत्तीसगढ़ समेत सभी राज्यो ने ऐलोपैथी के चिकित्सकीय अधिकार के लिए एक आरडिनेंस लाकर चिकित्सको को अधिकार प्रदत्त किये । दो साल पहले छत्तीसगढ़ मे ही अवैध क्लीनिक चलाने के नाम से आयुर्वेद चिकित्सको को प्रताड़ित किया गया। जिसे बाद मे शासन ने फिर वैधानिकता प्रदान की । अभी तक देश भर मे आयुर्वेद चिकित्सक की मांग कुछ ज्यादा नहीं थी । उनकी बहुप्रतिक्षित मांग यही थी कि उन्हे ऐलोपैथी के चिकित्सकीय का अधिकार भी दिया जाए । पर इन लोगों की लाॅबी काफी सशक्त होने के कारण आयुर्वेद के चिकित्सकों को हर समय कानूनी अडचने आई । अभी भी शायद सर्वोच्च न्यायालय मे यह केस चल ही रहा है। दुर्भाग्य से इन लोगों ने हम लोगों को झोला छाप चिकित्सक की श्रेणी में रखा हुआ था। मुझे इस बात का अफसोस होता है कि गलत बातों मे भी एक बंदा भी कुछ नहीं बोलता। ऐसा भी नही है कि आयुर्वेद की महत्ता को विद्वान ऐलोपैथी चिकित्सक भी अपनाते हैं और मैंने इनको इस चिकित्सा पद्धति का लाभ अपने मरीजो को भी देते हुए देखा है। आज समय के मै अपने बडे भाई जैसे मित्र स्व. डा . प्रदीप पांडे का जरूर उल्लेख करूंगा। मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर कार्यरत डा. प्रदीप पांडे आयुर्वेद के बहुत मुरीद थे । जब मैंने अपने बडे भाई के पाइलस फिसचूला के लिए संपर्क किया। देखने के बाद मुझे कहा कि किरण ( मेरा निक नेम किरण है ) बडे भाई को क्षार सूत्र के लिए बनारस विश्व विद्यालय के आयुर्वेद विभाग के शल्य चिकित्सा विभाग में जाने की सलाह दी। वहां से क्षार सूत्र से आज भी मेरे भाई अच्छे है। उसी समय ही डा . प्रदीप पांडे जी क्षार सूत्र बनारस जाकर उन्होंने वहां सीखा और उसे अपने चिकित्सकीय जीवन मे उपयोग किया। कई नामी चिकित्सक अपने चिकित्सकीय जीवन मे उपयोग कर रहे है। मैंने कई ऐलोपैथी चिकित्सको को कोविड मे गिलोय के उपयोग की सलाह दी। फिर विषय पर जब यह बात मोदी जी के सरकार के सामने आई तो उनहोंने हमारी मांग पर गौर ही नहीं किया उनहोंने हमारे सभी विशेषज्ञता के द्वार जो अभी तक बंद जैसे स्थिति में थे उसे पूरी तरह से खोल दिया । अभी नए बिल मे शल्य शालाकय प्रसूति आदि विषयों पर वो पूरे अधिकार देकर करने की अनुमति ही प्रदान कर दी । इसके कारण लोगों को भी एक सामानांतर विकल्प मिल जाएंगा। वहीं जहां आयुर्वेद मे पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उदासी थी वो पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। यह विषय पूरी तरह से रोजगार जुड़ जाएंगा। इन बडे बडे कारपोरेट हास्पीटल को डर है कि यह विशेषज्ञ कल निकलेंगे तो कहीं सर्जरी के लिए आकर्षित न कर ले । अगर एक बार चल पडी तो इनके इंफ्रासटरकचर का क्या होगा ? वहीं कम कीमत में विश्वसनीय विकल्प का खतरा हर समय बना रहेगा । सबसे बड़ी तकलीफ उन लोगों को हो रही है जिन लोग चालीस लाख देकर एमबीबीएस बनाते हो । वहीं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए पचहतर लाख कहीं कमाऊ विषयों पर एक करोड़ का खर्च अनुमानित है। वो कहां से निकलेगा ? आज स्थिति यह है कि हर बडा चिकित्सक और नर्सिंग होम वाले अपने बच्चो को चिकित्सक ही बनाते हैं। फिर कितना भी खर्च हो जाए । फिर ऐसे लोग सेवा करने क्यो लगे ? उन्हे तो अपनी रकम निकालनी है ।कुछ लोग तो एजुकेशन लोन से बनते है फिर तो उन्हे अपने किश्त की चिंता रहेंगी । आज वैसे ही चिकित्सा बहुत महंगी है। सामान्य वयक्ति के पहुंच से बाहर है। कहीं यह विकल्प मिलता है तो क्या बुरा है ? निश्चित मोदी जी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जो संकल्प लिया है उसे वो एक एक कर पूरा कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति का उत्थान तभी संभव है जब हमारी विरासत की सबसे बडी घरोहर आयुर्वेद का पूर्ण विकास न हो । वो दिन दूर नहीं जब देश को फिर से हमें आचार्य सुश्रुत और आचार्य चरक फिर से मिलने लगे । पर यह जरूर है कि इससे बाजार वाद खत्म होंगा जो यह बड़ी कंपनियां नहीं चाहतीं। वहीं महंगे जांच भी प्रभावित होंगे । इन्हे भी मालूम है कि इस विरोध का कोई मायने नहीं है। जो बंदा तीन सौ सत्तर धारा और पैंतीस ए जैसे संवेदनशील मुद्दे को छू सकता है तो यह बिल तो बिलकुल इनके सामने कुछ नहीं है। वहीं जनता का समर्थन पहले बिल मे भी मिला था वो अब भी मिलेगा। वहीं यह सब लागू होने के बाद और विकल्प मिलने के बाद मेडिकल में इतनी फीस देकर कोई नहीं जाएगा। पेमेंट सीट के लिए बंदे मिलना मुश्किल हो जाएगा। वहीं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए इतनी राशि देकर विशेषज्ञ बनने के लिए भी लोगों को सोचना पडेगा। वही विदेशों में जाकर लोग एमबीबीएस करते है उसमे काफी कमी आएगी। पर जिस आयुर्वेद के लिए विदेश वाले भी इतना जानने को उत्सुक रहते है उसी शिक्षा पद्धति को विकसित करने का कोई रूप रेखा अभी तक नहीं थी । वैसे भी मोदी जी के गुजरात के जामनगर मे आयुर्वेद का संसथान विश्व प्रसिद्ध है। कोई एक ऐसा विकल्प की परिकल्पना होने के कारण ही इस बिल को अनुमति मिली होगी । वैसे भी इन ऐलोपैथी के चिकित्सकों को डरने की कोई बात नहीं है अगर ये देशी चिकित्सक योग्य नहीं होंगे तो जनता उन्हे वैसे ही खारिज कर देंगे। नहीं तो अपने कार्य प्रणाली में इतना बदलाव लाना पडेगा कि यह चिकित्सा भी खर्च के मामले में समतुल्य दिखाई देने लगे। पर मै आज भी इससे सहमत हूँ कि मारडन मेडिसिन का कोई सानी नहीं है। आपातकाल चिकित्सा के लिए यही ज्यादा उपयोगी है। मेरा तो मानना है कि हम चिकित्सा पद्धति से लडने के बजाय जनता के हितों मे जिस भी पद्धति मे जो अच्छे उपचार है उन्हे अपनाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। अगर सरकार आयुर्वेद के माध्यम से पोस्ट ग्रेजुएशन के द्वारा आयुर्वेद को पुनरोद्धार कर रही है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इस देश में आज से दो सौ साल पहले आयुर्वेद ही एक चिकित्सा का विकल्प था । हमने जरूर ऐलोपैथी को महत्व दिया है पर इसका मतलब यह भी नहीं कि हम आयुर्वेद को भूल जाए । जिन लोग यह विरोध कर रहे है क्या वो यह सुनिश्चित करेंगे कि अपनी पैथी से अंतिम वयक्ति तक चिकित्सा पहुंचायेंगे जो उनका एक संवैधानिक अधिकार है । कितने एमबीबीएस चिकित्सक आज सुदूर अंचल में जाकर अपनी सेवाएं देने को तैयार है ? अन्यथा दस या ग्यारह दिसंबर को पूरे देश में आईएमए हड़ताल पर जा रहे है । पर शायद देश वासियों को यह हड़ताल क्यो हो रहीं हैं यह शायद ही मालूम हो । मै आपको यह बात आसान रूप से बता दू । मोदी जी की सरकार ने एक बिल पास किया है जिसमे आयुर्वेद के उत्थान के लिए बहुत महत्वपूर्ण कदम उठाये गये है। उल्लेखनीय है कि पिछले सत्तर साल से आजादी के बाद से ही आयुर्वेद चिकित्सक उपेक्षित ही थे । पर यह भी कटु सत्य है कि देश के चिकित्सा की रीढ़ भी आयुर्वेद चिकित्सक ही रहे है । चाहे किसी की भी पार्टी की सरकार रही हो सबने इसकी महत्ता समझी है । आज सुदूर इलाको में यही चिकित्सक है जो कम से कम उस इलाको में सुविधाऐं मुहैया कराने का काम करते हैं। स्वास्थय के लिए अंतिम वयक्ति तक कम से कम यही चिकित्सक पहुंचते हैं। इसलिए इंटीग्रेटेड चिकित्सा ( समन्वित चिकित्सा ) पद्धति पूरे देश में लागू कर दिया गया था । पर जब तक इन लोगों को इनके व्यवसाय मे फर्क नहीं पड रहा था तब तक इन्होंने कोई आपत्ति नहीं उठाई फिर धीरे से इंट्रीग्रेटेड कोर्स बंद करवाया। फिर चिकित्सा पद्धति के रोक पर अपनी पूरी ताकत लगवा दी। चिकित्सा राज्य का विषय है इसलिए यही कारण था कि छत्तीसगढ़ समेत सभी राज्यो ने ऐलोपैथी के चिकित्सकीय अधिकार के लिए एक आरडिनेंस लाकर चिकित्सको को अधिकार प्रदत्त किये । दो साल पहले छत्तीसगढ़ मे ही अवैध क्लीनिक चलाने के नाम से आयुर्वेद चिकित्सको को प्रताड़ित किया गया। जिसे बाद मे शासन ने फिर वैधानिकता प्रदान की । अभी तक देश भर मे आयुर्वेद चिकित्सक की मांग कुछ ज्यादा नहीं थी । उनकी बहुप्रतिक्षित मांग यही थी कि उन्हे ऐलोपैथी के चिकित्सकीय का अधिकार भी दिया जाए । पर इन लोगों की लाॅबी काफी सशक्त होने के कारण आयुर्वेद के चिकित्सकों को हर समय कानूनी अडचने आई । अभी भी शायद सर्वोच्च न्यायालय मे यह केस चल ही रहा है। दुर्भाग्य से इन लोगों ने हम लोगों को झोला छाप चिकित्सक की श्रेणी में रखा हुआ था। मुझे इस बात का अफसोस होता है कि गलत बातों मे भी एक बंदा भी कुछ नहीं बोलता। ऐसा भी नही है कि आयुर्वेद की महत्ता को विद्वान ऐलोपैथी चिकित्सक भी अपनाते हैं और मैंने इनको इस चिकित्सा पद्धति का लाभ अपने मरीजो को भी देते हुए देखा है। आज समय के मै अपने बडे भाई जैसे मित्र स्व. डा . प्रदीप पांडे का जरूर उल्लेख करूंगा। मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर कार्यरत डा. प्रदीप पांडे आयुर्वेद के बहुत मुरीद थे । जब मैंने अपने बडे भाई के पाइलस फिसचूला के लिए संपर्क किया। देखने के बाद मुझे कहा कि किरण ( मेरा निक नेम किरण है ) बडे भाई को क्षार सूत्र के लिए बनारस विश्व विद्यालय के आयुर्वेद विभाग के शल्य चिकित्सा विभाग में जाने की सलाह दी। वहां से क्षार सूत्र से आज भी मेरे भाई अच्छे है। उसी समय ही डा . प्रदीप पांडे जी क्षार सूत्र बनारस जाकर उन्होंने वहां सीखा और उसे अपने चिकित्सकीय जीवन मे उपयोग किया। कई नामी चिकित्सक अपने चिकित्सकीय जीवन मे उपयोग कर रहे है। मैंने कई ऐलोपैथी चिकित्सको को कोविड मे गिलोय के उपयोग की सलाह दी। फिर विषय पर जब यह बात मोदी जी के सरकार के सामने आई तो उनहोंने हमारी मांग पर गौर ही नहीं किया उनहोंने हमारे सभी विशेषज्ञता के द्वार जो अभी तक बंद जैसे स्थिति में थे उसे पूरी तरह से खोल दिया । अभी नए बिल मे शल्य शालाकय प्रसूति आदि विषयों पर वो पूरे अधिकार देकर करने की अनुमति ही प्रदान कर दी । इसके कारण लोगों को भी एक सामानांतर विकल्प मिल जाएंगा। वहीं जहां आयुर्वेद मे पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उदासी थी वो पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। यह विषय पूरी तरह से रोजगार जुड़ जाएंगा। इन बडे बडे कारपोरेट हास्पीटल को डर है कि यह विशेषज्ञ कल निकलेंगे तो कहीं सर्जरी के लिए आकर्षित न कर ले । अगर एक बार चल पडी तो इनके इंफ्रासटरकचर का क्या होगा ? वहीं कम कीमत में विश्वसनीय विकल्प का खतरा हर समय बना रहेगा । सबसे बड़ी तकलीफ उन लोगों को हो रही है जिन लोग चालीस लाख देकर एमबीबीएस बनाते हो । वहीं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए पचहतर लाख कहीं कमाऊ विषयों पर एक करोड़ का खर्च अनुमानित है। वो कहां से निकलेगा ? आज स्थिति यह है कि हर बडा चिकित्सक और नर्सिंग होम वाले अपने बच्चो को चिकित्सक ही बनाते हैं। फिर कितना भी खर्च हो जाए । फिर ऐसे लोग सेवा करने क्यो लगे ? उन्हे तो अपनी रकम निकालनी है ।कुछ लोग तो एजुकेशन लोन से बनते है फिर तो उन्हे अपने किश्त की चिंता रहेंगी । आज वैसे ही चिकित्सा बहुत महंगी है। सामान्य वयक्ति के पहुंच से बाहर है। कहीं यह विकल्प मिलता है तो क्या बुरा है ? निश्चित मोदी जी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जो संकल्प लिया है उसे वो एक एक कर पूरा कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति का उत्थान तभी संभव है जब हमारी विरासत की सबसे बडी घरोहर आयुर्वेद का पूर्ण विकास न हो । वो दिन दूर नहीं जब देश को फिर से हमें आचार्य सुश्रुत और आचार्य चरक फिर से मिलने लगे । पर यह जरूर है कि इससे बाजार वाद खत्म होंगा जो यह बड़ी कंपनियां नहीं चाहतीं। वहीं महंगे जांच भी प्रभावित होंगे । इन्हे भी मालूम है कि इस विरोध का कोई मायने नहीं है। जो बंदा तीन सौ सत्तर धारा और पैंतीस ए जैसे संवेदनशील मुद्दे को छू सकता है तो यह बिल तो बिलकुल इनके सामने कुछ नहीं है। वहीं जनता का समर्थन पहले बिल मे भी मिला था वो अब भी मिलेगा। वहीं यह सब लागू होने के बाद और विकल्प मिलने के बाद मेडिकल में इतनी फीस देकर कोई नहीं जाएगा। पेमेंट सीट के लिए बंदे मिलना मुश्किल हो जाएगा। वहीं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए इतनी राशि देकर विशेषज्ञ बनने के लिए भी लोगों को सोचना पडेगा। वही विदेशों में जाकर लोग एमबीबीएस करते है उसमे काफी कमी आएगी। पर जिस आयुर्वेद के लिए विदेश वाले भी इतना जानने को उत्सुक रहते है उसी शिक्षा पद्धति को विकसित करने का कोई रूप रेखा अभी तक नहीं थी । वैसे भी मोदी जी के गुजरात के जामनगर मे आयुर्वेद का संसथान विश्व प्रसिद्ध है। कोई एक ऐसा विकल्प की परिकल्पना होने के कारण ही इस बिल को अनुमति मिली होगी । वैसे भी इन ऐलोपैथी के चिकित्सकों को डरने की कोई बात नहीं है अगर ये देशी चिकित्सक योग्य नहीं होंगे तो जनता उन्हे वैसे ही खारिज कर देंगे। नहीं तो अपने कार्य प्रणाली में इतना बदलाव लाना पडेगा कि यह चिकित्सा भी खर्च के मामले में समतुल्य दिखाई देने लगे। पर मै आज भी इससे सहमत हूँ कि मारडन मेडिसिन का कोई सानी नहीं है। आपातकाल चिकित्सा के लिए यही ज्यादा उपयोगी है। मेरा तो मानना है कि हम चिकित्सा पद्धति से लडने के बजाय जनता के हितों मे जिस भी पद्धति मे जो अच्छे उपचार है उन्हे अपनाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। अगर सरकार आयुर्वेद के माध्यम से पोस्ट ग्रेजुएशन के द्वारा आयुर्वेद को पुनरोद्धार कर रही है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इस देश में आज से दो सौ साल पहले आयुर्वेद ही एक चिकित्सा का विकल्प था । हमने जरूर ऐलोपैथी को महत्व दिया है पर इसका मतलब यह भी नहीं कि हम आयुर्वेद को भूल जाए । जिन लोग यह विरोध कर रहे है क्या वो यह सुनिश्चित करेंगे कि अपनी पैथी से अंतिम वयक्ति तक चिकित्सा पहुंचायेंगे जो उनका एक संवैधानिक अधिकार है । कितने एमबीबीएस चिकित्सक आज सुदूर अंचल में जाकर अपनी सेवाएं देने को तैयार है ? अन्यथा शासन जो विकल्प ढूंढ रहा है कम से कम उसमे बाधाएं नहीं डालनी चाहिए। फिर से एक बार ” मोदी जी है तो मुमकिन है ” । इस क्रांतिकारी बिल को लागू करने के लिए साधुवाद । बस इतना ही
डा . चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ जो विकल्प ढूंढ रहा है कम से कम उसमे बाधाएं नहीं डालनी चाहिए। फिर से एक बार ” मोदी जी है तो मुमकिन है ” । इस क्रांतिकारी बिल को लागू करने के लिए साधुवाद । बस इतना ही
डा . चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ बार्डर को ब्लाक कर यह क्या संदेश देना चाहते हैं । इन्हे किसने यह अधिकार दिया हुआ है कि आम आदमीयो को नागरिको को क्यो बेवजह परेशान किया जा रहा है। हमारे नागरिक मौलिक अधिकार पर यह लोग बाधा डालने वाले कौन होते है । जब आंदोलन मे असामाजिक तत्वों के घुसपैठ से जब आंदोलन की साख पर आंच आती है तो जवाबदेही लेते भी कोई नहीं दिखता । कैसे किसी आंदोलन मे खालिस्तान के झंडे नारे दिखते हैं। कैसे पाक समर्थन में नारे कैसे दिखाईं देते है । फिर यहां का यह किसान आंदोलन यू नो के गलियारों में कैसे पहुंच जाता है। फिर इनके वहां से संबंध कैसे हैं ? वैसे ही हमारे के यहां के इस आंदोलन मे जब ब्रिटेन के अट्ठाइस सांसद हस्तक्षेप के लिए वहां के प्रधानमंत्री से गुहार लगाये तो यह अपने इस तथाकथित मांग के पीछे जो नियत निहित है उससे उजागर होने लगते है । इन लोगों मे जरा भी हया और शर्म नहीं है कि जिस देश ने हमे दो सौ साल गुलाम बनाया वहीं हमारे क्रांतिकारी इनके कारण शहीद हुए उनके आगे यह रोना रो रहे है । साहब भारत अब वो देश है जिसके पास लोग अपनी समस्या लेकर आते है । मोदी जी के आने के बाद यह परिवर्तन तो विश्व पटल मे दिख ही रहा है ।वहीं कनाडा के प्रधानमंत्री का कथन भी असामयिक है। यह तो किसान आंदोलन न होकर जंग के हालात का बयां कर रहे है । अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि अधिकतर किसान संतुष्ट हैं। अब उनका इस आंदोलन से कोई लेना देना नही है। वैसे भी सिर्फ यह पंजाब के ही किसानो की समस्या ज्यादा लग रही है। देश भर के किसानों का इससे कोई सरोकार नहीं लग रहा है। अभी एक वीडियो में मैंने देखा है कि एक शिक्षित किसान का यह कहना कि मोदी जी ने जो प्रस्ताव रखा है जहां किसान कहीं भी अपने सामान को बेच सकता है। वहीं एमएसपी जिसके लिए हड़ताल हो रही हैं वो राज्यो का विषय है। किसानों को गुमराह किया जा रहा है। उनके कंधो का राजनीति मे इस्तेमाल हो रहा है। इस कानून को वापस लेने के लिए दबाव डालना एक राजनीतिक साजिश है। जिससे इसी मुद्दे को सामने रखकर दूसरे बिलों पर राजनीति की जाए और फिर ऐसे ही आंदोलन खडा कर राजनीति की जाए । कुल मिलाकर यह आंदोलन दिशाहीन होकर गलत हाथों में चला गया है जिसका खामियाजा बाद में किसानों को ही भुगतना होगा। अच्छा होता किसान इन नेताओं को अपने इस आंदोलन से दूर कर सरकार के साथ बातचीत कर समाधान निकालने मे कामयाब होते । बस इतना ही
डा. चंद्रकांत रामचन्द्र वाघ